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Saturday 4 May 2013

फेसबुक पर प्रत्याशी



आसिफ इकबाल

एक जमाना था जब चुनाव आते ही उम्मीदवार प्रचार के लिए तरह-तरह के माध्यम इस्तेमाल करते थे। वाहनों में लगे तेज आवाज करते लाउड स्पीकर किलोमीटर तक प्रत्याशी के प्रचारकों की आवाज बुलंद करते थे। गांव-शहर की दीवारें चुनावी इबारतों से पाट दी जाती थीं, आसमान बैनरों से दिखाई नहीं देता था और जमीन हाथ जोड़े खड़े प्रत्याशी की फोटो लगे पर्चों से ढक जाती थी। माहौल में चुनावी महक उड़ने लगती थी। गली-मोहल्ले के वरिष्ठ लोगों की जमातें आपस में दिन-रात गुफ्तगू करते देखी जा सकतीं थी। इसके बाद चुनाव आयोग के दिशा निर्देश आए कि एक निश्चित समयसीमा और निश्चित खर्च पर ही चुनाव प्रचार होगा। प्रत्याशियों को चुनाव खर्च कि चिंता नहीं थी। उन्हें तो बस ये चिंता थी कि मतदाताओं से महीनों पहले कैसे जुड़ा जाए। अब इन प्रत्याशियों को सोशल मीडिया साइट्स से कुछ उम्मीद कि किरण नजर आ रही है। हाल ही में इंटरनेट एवं मोबाइल एसोसिएशन आॅफ इंडिया के एक अध्ययन में कहा गया है कि देश की 543 लोकसभा सीटों में 160 सीटों के नतीजों को सोशल मीडिया प्रभावित कर सकता है। सोशल मीडिया द्वारा प्रभावित होने वाले निर्वाचन क्षेत्र वे हैं, जहां कुल मतदाताओं की संख्या के दस फीसद फेसबुक यूजर्स हैं।

आखिर क्या मायने निकाले जाएं इस रिपोर्ट के। क्या वाकई सोशल मीडिया साइट्स लोकसभा चुनावों को
प्रभावित कर सकते है? भविष्य में चाहे जो भी हो, लेकिन राजनीतिक दल इस सच्चाई को मानते हुए सोशल नेटवर्क साइट्स पर सक्रिय हो गए हैं। कर्नाटक के चुनावों में कांग्रेस के युवा राजनेता जैसे कृष्णा बायरेगौड़ा, प्रिया कृष्णा के अकाउंट बहुत पहले से हैं, लेकिन पार्टी के जी परमेश्वर, सिद्धरमैयाजैसे नेताओं ने चुनाव प्रचार के दौरान अपना अकाउंट खोला। मुख्यमंत्री जगदीश शेट्टार व उपमुख्यमंत्री आर अशोका ने भी हाल ही में अपना अकाउंट खोला। सोशल नेटवर्किंग साइट्स के जरिये आज का आम नागरिक लेखक और पत्रकार हो गया है। अगर इसके प्रभाव की बात की जाए तो मिस्र, लीबिया, बहरीन, सीरिया, ट्यूनीशिया जैसे देशों में इन्हीं सोशल साइट्स की वजह से क्रांति हुई। अमेरिका को हिलाने वाला अक्युपाई वॉल स्ट्रीट आन्दोलन भी इन्हीं साइट्स के जरिये अपने मुकाम तक पहुंचा। इस आन्दोलन को किसी भी अखबार, टीवी चैनल ने अपनी खबरों में नहीं रखा, लेकिन सोशल साइट्स से जुड़े लोगों ने इस आन्दोलन को एक क्रांति बना दिया और अमेरिकी सरकार को हिला दिया।  साल 2012-13 के चुनावों में अमेरिका के राष्ट्रपति ओबामा ने इन सोशल साइट्स के जरिये युवा वर्ग को जोड़ा और उन्हें इसका फायदा मिला। पाकिस्तान में यहीं काम इमरान खान की पार्टी पाकिस्तान तहरीके इंसाफ कर रही हैं।

 अगर भारत की बात की जाए, तो अन्ना के आन्दोलन और दिल्ली गैंगरेप कांड को भारी तादाद में मिलने वाला जनसमर्थन भी सोशल साइट्स की देन है। अन्ना के आन्दोलन से ही राजनीतिक दलों ने सोशल साइट्स के महत्व को समझा, लेकिन सवाल ये उठता है कि क्या इन घटनाओं की तरह लोकसभा चुनावों में भी सोशल मीडिया अपनी अहम भूमिका निभाएगा? अगर अन्ना के आन्दोलन की बात की जाए, तो दिल्ली में 'हिट' होने वाला आन्दोलन, मुंबई में क्यों 'फ्लॉप' हो गया? जबकि दिल्ली से ज्यादा मुंबई में सोशल साइट्स उपभोक्ता हैं। हम भारत को दूसरे देशों से जोड़कर नहीं देख सकते हैं, क्योंकि वो देश हमसे कई गुना ज्यादा आधुनिकऔर शिक्षित हैं।

 इंटरेट की पहुंच लगभग हर नागरिक तक है। लेकिन अगर भारत की बात की जाए तो देश के बड़े शहरों में तो सोशल साइट्स के प्रभाव को माना जा सकता है पर कस्बों और ग्रामीण इलाकों में इसके प्रभाव की कम गुंजाइश है। गरीब और मध्यमवर्ग ही सबसे ज्यादा मतदान करता है, जबकि इन तक आज भी इंटरनेट की पहुंच बहुत कम है। अगर राज्यों की बात की जाए, तो वहां क्षेत्रीय दल पूरी तरह से स्थानीय मतदाता पर जाति, धर्म, और क्षेत्र का प्रभाव डाले हुए हैं। इन मतदाताओं पर सोशल साइट्स का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। पूरे भारत में लगभग सात करोड़ उपभोक्ता फेसबुक और 1.8 करोड़ ट्विटर यूज करते हैं, जिनमें से करीब 37 फीसद युवा हैं। देश में मतदाताओं की संख्या लगभग 44 करोड़ है। फिलहाल देश के राजनीतिक दलों ने इसके प्रभाव को स्वीकार कर लिया है। इंटरनेट पर लोगों से जुड़ने के लिए 22 साल के एमसीए छात्र हितेंद्र मेहता और नवरंग एसबी भाजपा की 100 सदस्यों वाली इंटरनेट इकाई का हिस्सा हैं, जो पार्टी की विचारधारा को सोशल मीडिया तक पहुंचाते हैं।

 किसी समय सोशल मीडिया पर प्रतिबंध की वकालत करने वाली कांग्रेस ने दिग्विजय सिंह की अगुवाई में दस सदस्यों वाली संचार और प्रचार समिति बनाई है, जिसमें  मनीष तिवारी, अंबिका सोनी, ज्योर्तिादित्य सिंधिया, दीपेंदर हुड्डा, राजीव शुक्ल, भक्त चरण दास, आनंद अदकोली, संजय झा और विश्वजीत सिंह शामिल हैं। कांगे्रस एनएसयूआई जैसे संगठनों से कार्यकर्ताओं को एकजुट कर रही है। भले ही सोशल मीडिया 2014 के लोकसभा चुनाव में अपना प्रभाव न छोड़ पाए, लेकिन भविष्य में इसके गंभीर प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता, क्योंकि तबतक हर मतदाता की पहुंच तक इंटरनेट होगा और सोशल साइट्स चुनाव प्रचार के लिए पूरी तरह से मददगार साबित होंगी, लेकिन दिल्ली अभी बहुत दूर है।