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Wednesday 15 November 2017

रिश्ते...ख़ामख़ा के रिश्ते बेवजह के रिश्ते

रिश्ते...ख़ामख़ा के रिश्ते
बेवजह के रिश्ते
क्यों ढोते हो ज़बरदस्ती इन्हें
बोझ कम क्यों नहीं कर देते ज़िंदगी का
कुछ काम के रिश्ते, कुछ बेकार के रिश्ते
कबाड़ की तरह पड़े हैं, न फेंके जाएं, न देखे जाएं
कुछ ऐसे जिनकी चमक भी फीकी पड़ गई
कुछ ऐसे जिन्हें चाहकर भी चमका नहीं सकते
कुछ ऐसे जो चमकना नहीं चाहते
कुछ ऐसे जो संभलना नहीं चाहते
चलो किसी दिन डूबते हुए सूरज की तरफ़
सुना है अंधेरा घना होता है उस तरफ़
समेटकर इन रिश्तों को डाल आए उस तरफ़
जहां से वापस न आ सकें ये इस तरफ़
रिश्ते न होंगे तो क्या होगा
सिर्फ मैं और मेरी तन्हाइयां होंगी
ज़िंदगी तो होगी, गम और खुशियां न होंगीं
हंस रहा होगा वक्त उन रिश्तों पर
जो बेवजह मुर्दा से पड़े थे दहलीज़ पर
जला दो भरी आंख के तट पर इन्हें
ये वो रिश्ते थे जिनमें अहसास नहीं थे
दफ़ना दो कलेजे पर पत्थर रखकर
इन पत्थर दिल रिश्तों को
यकीन मानों ज़िंदा वही मिलेंगे
जिनमें तुम्हारे लिए सांसें होगी
वरना घूमते रहो लेकर 'अरमान'
ख़ामख़ा के रिश्ते...बेवजह के रिश्ते...

#अरमान

Tuesday 7 November 2017

चंद चेहरे पूरी क़ौम की पहचान नहीं हैं

चंद चेहरे पूरी क़ौम की पहचान नहीं हैं
बाबर, औरंगज़ेब ही सिर्फ मुसलमान नहीं हैं
इस ज़मीं ने बख़्शे हमीद, अशफ़ाक़ और कलाम
तुम्हारी फ़ेहरिस्त में ये मुसलमान नहीं हैं

पहले वो दिखाते थे अपनी दहशत
अब उनकी दहशत तुम दिखाते हो
मोहब्बत से जीत नहीं सकते दिल
चिता पर रोटी सेंककर खाते हो
देश में तुमसा कोई बेईमान नहीं है
चंद चेहरे पूरी क़ौम की पहचान नहीं हैं

तुम्हारे ही शब्दों में हिंदू और मुसलमान क्यों है
तुम्हारे ही शब्दों में आरती और अज़ान क्यों है
तुम्हारे ही शब्दों में गीता और कुरआन क्यों हैं
तुम्हारे ही शब्दों में कब्रिस्तान-श्मशान क्यों है
ये तो हमारी गंगा-जमुनी ज़बान नहीं है
चंद चेहरे पूरी कौम की पहचान नहीं हैं

तुम न राम के हो न रहमान के
न ही पंडित के हो न पठान के
तुमसे क्या उम्मीद करे कोई
न जाने तुम हो किस धर्म-ईमान के
हिंदुस्तानी जैसे तुम्हारे 'अरमान' नहीं हैं
चंद चेहरे पूरी कौम की पहचान नहीं हैं...
#अरमान

Sunday 5 November 2017

सांसों से बोल दिया है

जज़्बातों से बोल दिया है 
परदा उठाएंगे जाना नहीं कहीं
रातों से बोल दिया है 
चांदनी जगाएंगे जाना नहीं कहीं
हवाओं से बोल दिया है 
फिज़ा महकाएंगे जाना नहीं कहीं
जश्न से बोल दिया है
 महफिल सजाएंगे जाना नहीं कहीं
अरमान से बोल दिया है 
इश्क फरमाएंगे जाना नहीं कहीं
सांसों से बोल दिया है
वो आएंगे जाना नहीं कहीं

क़लम तो तोड़ दूं...

क़लम तो तोड़ दूं,

बोलना भी छोड़ दूं

पर क्या गारंटी है

कल कोई और नहीं लिखेगा

कल कोई और नहीं बोलेगा...


हवाओं के रुख मोड़े नहीं जाते

खुद को बचाना होता है

मंज़िल ख़ुद नहीं आती

चलकर जाना होता है

मैं चलना तो छोड़ दूं

पर क्या गारंटी है

कल कोई और नहीं चलेगा

मंज़िल से नहीं मिलेगा


मज़बूत हैं पर मजबूर हैं

जो भी है सब मंज़ूर है

लफ़्जों में मेरी बंदिश सही

वक्त तेरी पकड़ से दूर है

पर क्या गारंटी है

कल कोई और नहीं उठेगा

हक के लिए नहीं लड़ेगा...

किसी के घर उजाले ही उजाले हैं

किसी के घर उजाले ही उजाले हैं
किसी की छत तले अंधेरे काले हैं
ये कैसी तक्सीमात तेरी मौला
किसे के पैर हवाओं में 
किसे के पैर में छाले हैं

भूख से सिसकती है ज़िंदगी कहीं
कहीं थाली में शाही निवाले हैं
किसी के महलों में बिखरी रौनक
कहीं खंडहर में मकड़ियों जाले हैं

ग़म बचकर निकलते हैं कहीं
कहीं मुस्तकिल डेरा डाले हैं
ख़रीद ली जाती हैं सांसें कहीं
कहीं ज़िंदगी मौत के हवाले है

फटे लिबास हैं शौक कहीं
कहीं बदन पे चुनरी के लाले हैं
'अरमान' हो रहे हैं पूरे कहीं
कहीं ना-उम्मीदी के नाले हैं

देख रहा है तो इंसाफ़ कर मौला
क्यों ख़ामख़ा में दुनिया संभाले है...

Saturday 4 November 2017

सवाल का ही तो सवाल है

सवाल का ही तो सवाल है,
सवाल पर ही बवाल है
जवाब नहीं,पर सवाल है
सवाल पर वो लाल है
सवाल का नहीं ख़याल है
सवाल जी का जंजाल है
सवाल से बुरा हाल है
सवाल पर मलाल है
जब किसी ने पूछा सवाल है
सवाल पर उठा दिया सवाल है
'अरमान' का भी एक सवाल है
उठे क्यों इतने यहां सवाल हैं...


सियाह रात में रौशनी जलाएं तो जलाएं कैसे

सियाह रात में रौशनी जलाएं तो जलाएं कैसे
बेचैन से दिल को बहलाएं तो बहलाएं कैसे
नींद ने मोड़ ली हैं इस गली से नज़रें
हो गईं पत्थर आंखें सुलाएं तो सुलाएं कैसे

हर तरफ सुकून ओ ख़ामोशी है छाई
तेरी याद मुझे फिर छेड़ने है आई
बड़ी नादां है समझाएं तो समझाएं कैसे
सियाह रात में रौशनी जलाएं तो जलाएं कैसे

चलो आसमां को भी परेशां किया जाए
रात को भी चांद से जुदा किया जाए
तारों को ज़मीं पर बुलाएं तो बुलाएं कैसे
सियाह रात में रौशनी जलाएं तो जलाएं कैसे

कोई बाज़ार हो तो बताना ज़रा
कोई क़ीमत हो तो लगाना ज़रा
'अरमान' की बोली लगाएं तो लगाएं कैसे
सियाह रात में रौशनी जलाएं तो जलाएं कैसे...

#अरमान