www.hamarivani.com

Monday, 8 May 2017

कभी कभी सोचता हूं...

कभी कभी सोचता हूं
कई चीज़े बेअसर बेज़ार हो गई हैं
कोई मोल नहीं रहा इनका
बेवजह से लगने लगीं हैं

एक ज॒ज़्बात हैं जो किसी काम के नहीं
लेकिन फिर भी मचलते हैं
रोज़ क़त्ल करता हूं
पर बड़ी बेशर्मी से ज़िंदा हो जाते हैं
मानों किसी ने कसम दी हो न मरने की

कुछ बेहिसाब ख़याल भी हैं
बेहयाई के साथ मंडराते हैं
चील की तरह नोचने के लिए
बेजान से जिस्म को

सुकून भी इनसे कुछ कम नहीं
होता है कहीं आसपास मौजूद
लेकिन कभी मिलता नहीं
मुद्दत हुई मुलाकात हुए

हां मोहब्बत को कई बार बोला है
कि अब तो चली जाओ
कि तुम्हारा पुरसाहाल लेने वाला कोई नहीं
मगर क्या करूं ऐसी वफादार मोहब्बत है
कि जाने का नाम नहीं लेती

सोचता हूं एक दिन सबको साथ लेके
कहीं लगता हो बाज़ार इनका
तो कर दूं ख़रीद फरोख्त
कुछ जज़्बात बेचूं, कुछ सुकून खरीदूं और मोहब्बत को कहीं भीड़ में छोड़कर चला आऊं...लावारिस...

No comments:

Post a Comment