किसी के घर उजाले ही उजाले हैं
किसी की छत तले अंधेरे काले हैं
ये कैसी तक्सीमात तेरी मौला
किसे के पैर हवाओं में
किसे के पैर में छाले हैं
भूख से सिसकती है ज़िंदगी कहीं
कहीं थाली में शाही निवाले हैं
किसी के महलों में बिखरी रौनक
कहीं खंडहर में मकड़ियों जाले हैं
ग़म बचकर निकलते हैं कहीं
कहीं मुस्तकिल डेरा डाले हैं
ख़रीद ली जाती हैं सांसें कहीं
कहीं ज़िंदगी मौत के हवाले है
फटे लिबास हैं शौक कहीं
कहीं बदन पे चुनरी के लाले हैं
'अरमान' हो रहे हैं पूरे कहीं
कहीं ना-उम्मीदी के नाले हैं
देख रहा है तो इंसाफ़ कर मौला
क्यों ख़ामख़ा में दुनिया संभाले है...
No comments:
Post a Comment