यादों से कह दो कहीं और जाएं
इस मकां में अब और नहीं है जगह
खाली कर देना चाहता हूं दिल को तुमसे
नुक्कड़ में बेदर्द कुआं है
जिसने न जाने कितने रोते चेहरों को ले लिया आगोश में
तू भी क्यों नहीं समा जाती उसमें
शायद बहुत बड़ा है दिल उसका
तभी तो याद आयी थी हमीदा को उसकी
खुले आसमान के नीचे रात-रात भर रोती थी
दोनों हाथों को ऊपर उठाकर करती थी दुआ
पर न आया उसका बेटा वापस उस जहां से लौटकर
पागल कहते, पत्थर मारते थे गांव वाले उसको
इन्हीं बेमुरव्वत यादों ने ही तो कर दिया था उसे दुनिया से गाफिल
एक कुआं ही तो था जो निकला उसका असली हमदर्द
सुला लिया अपनी नर्म गोद में सुकून के साथ
आखिर छोड़ क्यों नहीं देती मेरे जेहन के मकान को
क्यों इस कदर वफादार है मेरी तन्हाइयों की
मुफ्त में रखा था तुझे अपने पास
इतनी बेगैरत न बन एहसान को तो समझ
छोड़ दे मेरे जहन को, छोड़ दे मेरे जहन को।।।
...अरमान आसिफ इकबाल
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