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Saturday, 16 December 2017

तेरे मेरे बीच महज़ फ़ासले की दीवार है...

तेरे मेरे बीच महज़

 फ़ासले की दीवार है

और बस कुछ नहीं

तू रहती है यहीं कहीं...

मैंने हवाओं को भेजकर 

तेरी ख़ुशबू मंगाई है

चांदनी तेरे नूर की 

चमक साथ लेकर आई है

देख लेता हूं रात में

तेरी आंखों का काजल

भीग जाता हूं इश्क़ में

जब बरसते हैं बादल

  

मासूमियत मिल जाती है

किसी बच्ची की शकल में

ख़ुद को पा लेता हूं

तेरी ज़िंदगी के दख़ल में

नज़र में बने रहते हो

किसी तस्वीर की तरह

दुआओं के लिए ज़रूरी

जैसे कोई पीर की तरह

ख़ामोशी में ढूंढ लेता हूं

अरमानों का इक़रार

फ़ासले से कम नहीं होता

तेरी मोहब्बत मेरा प्यार

तेरे मेरे बीच महज़

 फ़ासले की दीवार है

और बस कुछ नहीं

तू रहती है यहीं कहीं...

Wednesday, 15 November 2017

रिश्ते...ख़ामख़ा के रिश्ते बेवजह के रिश्ते

रिश्ते...ख़ामख़ा के रिश्ते
बेवजह के रिश्ते
क्यों ढोते हो ज़बरदस्ती इन्हें
बोझ कम क्यों नहीं कर देते ज़िंदगी का
कुछ काम के रिश्ते, कुछ बेकार के रिश्ते
कबाड़ की तरह पड़े हैं, न फेंके जाएं, न देखे जाएं
कुछ ऐसे जिनकी चमक भी फीकी पड़ गई
कुछ ऐसे जिन्हें चाहकर भी चमका नहीं सकते
कुछ ऐसे जो चमकना नहीं चाहते
कुछ ऐसे जो संभलना नहीं चाहते
चलो किसी दिन डूबते हुए सूरज की तरफ़
सुना है अंधेरा घना होता है उस तरफ़
समेटकर इन रिश्तों को डाल आए उस तरफ़
जहां से वापस न आ सकें ये इस तरफ़
रिश्ते न होंगे तो क्या होगा
सिर्फ मैं और मेरी तन्हाइयां होंगी
ज़िंदगी तो होगी, गम और खुशियां न होंगीं
हंस रहा होगा वक्त उन रिश्तों पर
जो बेवजह मुर्दा से पड़े थे दहलीज़ पर
जला दो भरी आंख के तट पर इन्हें
ये वो रिश्ते थे जिनमें अहसास नहीं थे
दफ़ना दो कलेजे पर पत्थर रखकर
इन पत्थर दिल रिश्तों को
यकीन मानों ज़िंदा वही मिलेंगे
जिनमें तुम्हारे लिए सांसें होगी
वरना घूमते रहो लेकर 'अरमान'
ख़ामख़ा के रिश्ते...बेवजह के रिश्ते...

#अरमान

Tuesday, 7 November 2017

चंद चेहरे पूरी क़ौम की पहचान नहीं हैं

चंद चेहरे पूरी क़ौम की पहचान नहीं हैं
बाबर, औरंगज़ेब ही सिर्फ मुसलमान नहीं हैं
इस ज़मीं ने बख़्शे हमीद, अशफ़ाक़ और कलाम
तुम्हारी फ़ेहरिस्त में ये मुसलमान नहीं हैं

पहले वो दिखाते थे अपनी दहशत
अब उनकी दहशत तुम दिखाते हो
मोहब्बत से जीत नहीं सकते दिल
चिता पर रोटी सेंककर खाते हो
देश में तुमसा कोई बेईमान नहीं है
चंद चेहरे पूरी क़ौम की पहचान नहीं हैं

तुम्हारे ही शब्दों में हिंदू और मुसलमान क्यों है
तुम्हारे ही शब्दों में आरती और अज़ान क्यों है
तुम्हारे ही शब्दों में गीता और कुरआन क्यों हैं
तुम्हारे ही शब्दों में कब्रिस्तान-श्मशान क्यों है
ये तो हमारी गंगा-जमुनी ज़बान नहीं है
चंद चेहरे पूरी कौम की पहचान नहीं हैं

तुम न राम के हो न रहमान के
न ही पंडित के हो न पठान के
तुमसे क्या उम्मीद करे कोई
न जाने तुम हो किस धर्म-ईमान के
हिंदुस्तानी जैसे तुम्हारे 'अरमान' नहीं हैं
चंद चेहरे पूरी कौम की पहचान नहीं हैं...
#अरमान

Sunday, 5 November 2017

सांसों से बोल दिया है

जज़्बातों से बोल दिया है 
परदा उठाएंगे जाना नहीं कहीं
रातों से बोल दिया है 
चांदनी जगाएंगे जाना नहीं कहीं
हवाओं से बोल दिया है 
फिज़ा महकाएंगे जाना नहीं कहीं
जश्न से बोल दिया है
 महफिल सजाएंगे जाना नहीं कहीं
अरमान से बोल दिया है 
इश्क फरमाएंगे जाना नहीं कहीं
सांसों से बोल दिया है
वो आएंगे जाना नहीं कहीं

क़लम तो तोड़ दूं...

क़लम तो तोड़ दूं,

बोलना भी छोड़ दूं

पर क्या गारंटी है

कल कोई और नहीं लिखेगा

कल कोई और नहीं बोलेगा...


हवाओं के रुख मोड़े नहीं जाते

खुद को बचाना होता है

मंज़िल ख़ुद नहीं आती

चलकर जाना होता है

मैं चलना तो छोड़ दूं

पर क्या गारंटी है

कल कोई और नहीं चलेगा

मंज़िल से नहीं मिलेगा


मज़बूत हैं पर मजबूर हैं

जो भी है सब मंज़ूर है

लफ़्जों में मेरी बंदिश सही

वक्त तेरी पकड़ से दूर है

पर क्या गारंटी है

कल कोई और नहीं उठेगा

हक के लिए नहीं लड़ेगा...

किसी के घर उजाले ही उजाले हैं

किसी के घर उजाले ही उजाले हैं
किसी की छत तले अंधेरे काले हैं
ये कैसी तक्सीमात तेरी मौला
किसे के पैर हवाओं में 
किसे के पैर में छाले हैं

भूख से सिसकती है ज़िंदगी कहीं
कहीं थाली में शाही निवाले हैं
किसी के महलों में बिखरी रौनक
कहीं खंडहर में मकड़ियों जाले हैं

ग़म बचकर निकलते हैं कहीं
कहीं मुस्तकिल डेरा डाले हैं
ख़रीद ली जाती हैं सांसें कहीं
कहीं ज़िंदगी मौत के हवाले है

फटे लिबास हैं शौक कहीं
कहीं बदन पे चुनरी के लाले हैं
'अरमान' हो रहे हैं पूरे कहीं
कहीं ना-उम्मीदी के नाले हैं

देख रहा है तो इंसाफ़ कर मौला
क्यों ख़ामख़ा में दुनिया संभाले है...

Saturday, 4 November 2017

सवाल का ही तो सवाल है

सवाल का ही तो सवाल है,
सवाल पर ही बवाल है
जवाब नहीं,पर सवाल है
सवाल पर वो लाल है
सवाल का नहीं ख़याल है
सवाल जी का जंजाल है
सवाल से बुरा हाल है
सवाल पर मलाल है
जब किसी ने पूछा सवाल है
सवाल पर उठा दिया सवाल है
'अरमान' का भी एक सवाल है
उठे क्यों इतने यहां सवाल हैं...


सियाह रात में रौशनी जलाएं तो जलाएं कैसे

सियाह रात में रौशनी जलाएं तो जलाएं कैसे
बेचैन से दिल को बहलाएं तो बहलाएं कैसे
नींद ने मोड़ ली हैं इस गली से नज़रें
हो गईं पत्थर आंखें सुलाएं तो सुलाएं कैसे

हर तरफ सुकून ओ ख़ामोशी है छाई
तेरी याद मुझे फिर छेड़ने है आई
बड़ी नादां है समझाएं तो समझाएं कैसे
सियाह रात में रौशनी जलाएं तो जलाएं कैसे

चलो आसमां को भी परेशां किया जाए
रात को भी चांद से जुदा किया जाए
तारों को ज़मीं पर बुलाएं तो बुलाएं कैसे
सियाह रात में रौशनी जलाएं तो जलाएं कैसे

कोई बाज़ार हो तो बताना ज़रा
कोई क़ीमत हो तो लगाना ज़रा
'अरमान' की बोली लगाएं तो लगाएं कैसे
सियाह रात में रौशनी जलाएं तो जलाएं कैसे...

#अरमान

Tuesday, 29 August 2017

न जाने क्या चाहता है ये दिल

न जाने क्या चाहता है ये दिल
जिद करता है, मचलता है, मजबूर करता है

कितना भी रोकने की कोशिश करूं
तेरी ओर ख़्यालों के क़दम बढ़ जाते हैं

तुम्हारी आंखों, तुम्हारी बातों ने
जैसे कोई साज़िश की हो 'अरमान'

वरना ये मौसम ख़ामख़ाह नहीं बदलता
बेवजह नहीं छा जाते ख्वाबों के बादल

पलकों की टहनी में झूलते हुए ख़्वाब
सोचता हूं पत्थर मारके गिरा लूं इन्हें

पर डरता हूं कहीं टूटकर बिखर न जाएं
ये झूलते हुए ही अच्छे लगते हैं,
पलकों की टहनी पर...

Saturday, 17 June 2017

आओ ज़रा मिलकर ख़ुशियां ढूंढते हैं

आओ ज़रा मिलकर ख़ुशियां ढूंढते हैं
तुम इधर देखो, मैं उधर देखता हूं
यहीं कहीं आसपास होंगीं
बस नज़र ही तो नहीं आतीं
बिखरी-बिखरी सी मिलती हैं ये
एकमुश्त कभी नहीं दिखतीं
कितनी भी मिलें उठा लेना
दोनों की मिलाकर बड़ी कर लेंगे
ज़रा एहतिहात से थामना 
हाथ से फिसलते देर नहीं लगती
जितनी जल्दी हो सके
मल लेना तन-बदन में
वक़्त के साथ इनका बड़ा याराना है
वक़्त आएगा और इन्हें ले जाएगा
गर न मिले तो बिल्कुल मत घबराना
एक-दूसरे को ही अपनी ख़ुशी बनाना

तन्हाइयों ने कुछ इस क़दर जगह बना ली है

तन्हाइयों ने कुछ इस क़दर जगह बना ली है
आइने में अक्स देखूं तो आइना भी ख़ाली है

गिला किससे करें किससे करें शिकवा
मोहब्बत ने ये अजीब सी आदत डाली है

शिकार करती हैं मुझे दिन रात तेरी यादें
बड़े नाज़ों से मैंने जी जान से जो पाली हैं

वजूद अपना तो पहले ही खो चुके थे हम
फिर किस बात की ये दुश्मनी निकाली है

अंधेरा घना है, आओगे लौट के इक दिन
बस इस उम्मीद से रौशनी जला ली है

देखकर हैरान न हो जाना हमारी महफ़िल को
चांद-तारों से सजी क़ायनात बुला ली है

कोई बेवजह की चीज़ नहीं मेरे 'अरमान'
बड़ी हसरतों से तेरी चाहतें संभाली हैं....

Friday, 9 June 2017

तेरा चेहरा है या कोई मर्ज़ की शिफ़ा

तेरा चेहरा है या कोई शिफ़ा

देखते ही रंगत बदल जाती है

तेरा चेहरा है या कोई मर्ज़ की शिफ़ा

देखते ही मिज़ाज की रंगत बदल जाती है

झील सी आंखे हैं या कोई समंदर

डूबने को तबियत मचल जाती है

सुकुन मिलता है तुझे देखकर कुछ ऐसे

जैसे तपते रेत पे सर्द हवा चल जाती है

न कोई चर्चा तेरा न कोई ज़िक्र तेरा

न जाने क्यों तेरी फिर बात निकल आती है

सोचता हूं छुपा लूं इस ज़माने से तुझे

ये दुनिया है, बात-बात पे बदल जाती है

भले मिले न मिले एक पल का साथ तेरा

इन ख़्यालों से सुबह-शाम ढल जाती है

ज़मीं पे रहता है एक चांद और भी

अक्सर सितारों में भी बात चल जाती है

किसी हूर के नूर की क्या बात करें

तेरी आब देखके शमा भी जल जाती है

अरमान है बरकार रहे तेरे चेहरे की रौनक

हर दुआ,  इसी दुआ में बदल जाती है...

Thursday, 11 May 2017

ख़्वाब का क्या... ख़्वाब हैं

ख़्वाब का क्या... ख़्वाब हैं
 चलो आज बिखरे हुए ख्वाब इकट्ठे किए जाएं
कुछ टूटे, कुछ फूटे,कुछ चकनाचूर ख़्वाब
जो कभी देखे थे बंद और खुली आंखों से
 समेट कर उनमें से कुछ काम के निकाले जाएं

कुछ अधूरे हैं, कुछ धुंधले हैं
कुछ ज़रा से रह गए पूरे होने को
 फिर झाड़ पोछ के इन्हें देखा जाए
शायद एक आध हों ऐसे
जिनको मंज़िल तक पहुंचाया जाए

उम्मीद कम है किसी के सलामत होने की
मेहनत का रंग तो आज भी वैसा है
पर वक्त का मिजाज़॒ रंगीन किया जाए

ख़्वाब का काम ही है टूटकर बिखर जाना
और चुभते रहना हमेशा-हमेशा के लिए
आंखों में
'अरमान' हैं जो हार नहीं मानते इनके बिखरने से
और समेट लेते हैं इन्हें दोबारा फिर टूटने के लिए...
..........अरमान.....

Monday, 8 May 2017

कभी कभी सोचता हूं...

कभी कभी सोचता हूं
कई चीज़े बेअसर बेज़ार हो गई हैं
कोई मोल नहीं रहा इनका
बेवजह से लगने लगीं हैं

एक ज॒ज़्बात हैं जो किसी काम के नहीं
लेकिन फिर भी मचलते हैं
रोज़ क़त्ल करता हूं
पर बड़ी बेशर्मी से ज़िंदा हो जाते हैं
मानों किसी ने कसम दी हो न मरने की

कुछ बेहिसाब ख़याल भी हैं
बेहयाई के साथ मंडराते हैं
चील की तरह नोचने के लिए
बेजान से जिस्म को

सुकून भी इनसे कुछ कम नहीं
होता है कहीं आसपास मौजूद
लेकिन कभी मिलता नहीं
मुद्दत हुई मुलाकात हुए

हां मोहब्बत को कई बार बोला है
कि अब तो चली जाओ
कि तुम्हारा पुरसाहाल लेने वाला कोई नहीं
मगर क्या करूं ऐसी वफादार मोहब्बत है
कि जाने का नाम नहीं लेती

सोचता हूं एक दिन सबको साथ लेके
कहीं लगता हो बाज़ार इनका
तो कर दूं ख़रीद फरोख्त
कुछ जज़्बात बेचूं, कुछ सुकून खरीदूं और मोहब्बत को कहीं भीड़ में छोड़कर चला आऊं...लावारिस...

Thursday, 4 May 2017

चलो आज थोड़ा वक्त सा हो जाऊं

कभी ख़ुद को पाऊं कभी खो जाऊं
चलो आज थोड़ा वक्त सा हो जाऊं
इन लम्हों को कर दूं ज़रा आवारा
थोड़ा सा हंस लूं थोड़ा रो जाऊं

चलता रहूं दिन रात
करता रहूं बातों में बात
कहां ठहरूं कहां सो जाऊं
चलो आज थोड़ा वक्त सा हो जाऊं

सफ़र में मेरे संग होते बहुत हैं
किसको रोकूं सब खोते बहुत हैं
यादों के दरिया में ख़ुद को डुबो जाऊं
चलो आज थोड़ा वक्त सा हो जाऊं

कुछ अरमां ,कुछ  सपने साथ चलते हैं
कुछ बनते हैं मिसाल, कुछ हाथ मलते हैं
कहीं आसमां तो कहीं ज़मीं हो जाऊं
चलो आज थोड़ा वक्त सा हो जाऊं...

Monday, 3 April 2017

मैं धूप हूं, तुम छांव हो

मैं धूप हूं, तुम छांव हो
मैं सुनसान,तुम गांव हो
धुआं-धुआं सा उड़ता इश्क़
मैं सर्द हवा, तुम अलाव हो
तपता हूं रेत की तरह
करीब समंदर है
जलती हैं तमन्नाओं की लहरें
कैसा अजीब मंज़र है
मैं हारी बाज़ी, तुम दांव हो
मैं धूप हूं, तुम छांव हो
मैं सुनसान,तुम गांव हो

फकीर से हो गए हैं अल्फ़ाज़
फ़िज़ाओं में गूंजे बस यही आवाज़
मैं ख़ामोश रात, तुम साज़ हो
मैं धूप हूं, तुम छांव हो
मैं सुनसान,तुम गांव हो

बड़ी अजीब सी ये बात हुई
ज़िंदगी से यूं अचानक मुलाक़ात हुई
फिर न सुबह हुई, फिर न रात हुई
'अरमां' कुछ तो बोलो, क्या बात हुई
मैं सफ़र हूं, तुम पांव हो
मैं धूप हूं, तुम छांव हो
मैं सुनसान,तुम गांव हो...

Thursday, 16 March 2017

पता नहीं कौन सी वो रात होगी 
जब आसमान में चांद होगा 
और हर तरफ चांदनी होगी 
मखमली हाथ छू रहे होंगे अहसासों को 
शरम-ओ-हया भी रुखसती की तैयारी में होगी 
तुम्हारी खूबसूरत सी बातूनी आंखे 
न जाने कितनी बातें कहने को बेताब होंगी 
धड़कते दिलों की सांसों में तपिश होगी 
जो पिघला रहे होंगे हर एक बंदिश  
मोहब्बत के समंदर की बेबाक मौजें 
जिसमें डूबने की हर पल चाहत होगी 
सोचता हूं, बाहों में सारे 'अरमान' भरके 
पूरा तेरा हर ख़्वाब कर दूं 
आसमां से सितारे चुनके तेरी मांग भर दूं...

पता नहीं कौन सी वो रात होगी

पता नहीं कौन सी वो रात होगी 
जब आसमान में चांद होगा 
और हर तरफ चांदनी होगी 
मखमली हाथ छू रहे होंगे अहसासों को 
शरम-ओ-हया भी रुखसती की तैयारी में होगी 
तुम्हारी खूबसूरत सी बातूनी आंखे 
न जाने कितनी बातें कहने को बेताब होंगी 
धड़कते दिलों की सांसों में तपिश होगी 
जो पिघला रहे होंगे हर एक बंदिश  
मोहब्बत के समंदर की बेबाक मौजें 
जिसमें डूबने की हर पल चाहत होगी 
सोचता हूं, बाहों में सारे 'अरमान' भरके 
पूरा तेरा हर ख़्वाब कर दूं 
आसमां से सितारे चुनके तेरी मांग भर दूं...

Tuesday, 14 March 2017

इबादत हो गई पूरी कज़ा आज भी बाक़ी है

झुकी झुकी सी निगाहों का मज़ा आज भी बाक़ी है
जो नज़र से कर गए क़त्ल सज़ा आज भी बाक़ी है
फ़ना होने को तो अब कुछ और न बचा
इबादत हो गई पूरी कज़ा आज भी बाक़ी है

ख़्याल से भी आपका ख़्याल नहीं जाता
 इक यही जिंदगी का सवाल नहीं जाता
न जाने क्यों लगता है रज़ा आज भी बाक़ी है
इबादत हो गई पूरी कज़ा आज भी बाक़ी है

मेरे सीने में रेंगती हैं तेरी सांसें
खुद को ढूंढके अब लाऊं कहां से
'अरमान' लुट गए जज़ा आज भी बाक़ी है
इबादत हो गई पूरी कज़ा आज भी बाक़ी है

Tuesday, 7 February 2017

आंखो से बिखरे हुए ख्वाब चुन तो लो..

थमीं धड़कनों की आवाज़ सुन तो लो

अनकहे अल्फाज़ों की बात सुन तो लो
बेचैन जज़्बातों को बयान कैसे करूं
आंखो से बिखरे हुए ख़्वाब चुन तो लो

तेरे संग गुज़ारा वो साथ ख़ूबसूरत है
छुपके जो की, वो मुलाक़ात ख़ूबसूरत है
मोहब्बत की वो अपनी कायनात ख़ूबसूरत है
ख़्यालों में खोए वो ख़्यालात ख़ूबसूरत है

मेरा क्या है, मैं तो चला जाऊंगा
हर मर्तबा मोहब्बत से छला जाऊंगा
तेरे भेजे हुए खत जला जाऊंगा
मिट्टी में वो यादें मिला जाऊंगा

रोना इन आंखों ने अब छोड़ दिया है
नज़रों को उस तरफ से मोड़ दिया है
पत्थर में दिल रखके तोड़ दिया है
टूटे हुए अरमां को फिर जोड़ दिया है

लौट के जो न आए, वो आवाज सुन तो लो
आंखो से बिखरे हुए ख्वाब चुन तो लो......










Saturday, 4 February 2017

बड़े एतराम से मैंने उन्हें आज़ाद किया


बड़े एतराम से मैंने उन्हें आज़ाद किया
दिल में क़ब्र खोद सुपर्द ए ख़ाक किया
वजह नहीं रही रिश्ता अब निभाने की
बस यही सोच मोहब्बत को बर्बाद किया

यकीं है चाहत पे मेरी तुम्हें नाज़ नहीं
दिल ए सुकुं दे, ऐसी कोई आवाज़ नहीं
आज फिर मैंने चांद को बेदाग़ किया
बड़े एतराम से मैंने उन्हें आज़ाद किया

बेइंतहा मोहब्बत थी या फिर मजबूरी
मुकम्मल होके भी थी ये कहानी अधूरी
ग़म लेके खुशियों को तेरी आबाद किया
बड़े एतराम से मैंने उन्हें आज़ाद किया