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Saturday, 18 October 2014

कुछ और ग़म देकर इसे बेजान कर दो...

अहसासों से जुदा होकर इक एहसान कर दो
मेरी रूह जो ले गए हो  मेरे नाम कर दो
दिल के किसी कोने में सिसक रही है मोहब्बत तुम्हारी
कुछ और ग़म देकर इसे बेजान कर दो

रूठने मनाने की आदत फ़ना हुई
ज़िंदगी न हुई जैसे कोई गुनाह हुई
मेरे वजूद का भी क़त्ल सरेआम कर दो
कुछ और ग़म देकर इसे बेजान कर दो

मेरी आंख का पानी तेरे ज़ुल्म की निशानी है
ज़र्रा ज़र्रा बयां करता मेरे दर्द की कहानी है
जो कुछ बची हो सुबह उसे भी शाम कर दो
कुछ और ग़म देकर इसे बेजान कर दो

खूबसूरत लम्हों का इक रिसाला है
टूटा-फूटा ही सही पर इसे संभाला है
छोटी सी गुजारिश का पूरा 'अरमान' कर दो
कुछ और ग़म देकर इसे बेजान कर दो

Saturday, 11 October 2014

काश कोई लेकर पता तेरा आए...

काश कोई लेकर पता तेरा आए
हम बन के हवा तुझको फिर छू आएं
छोड़कर चले गए किस जहां में 
सांस लूं तो तेरी खुशबू आए

रिश्ते-नाते बेमतलब हो गए
ख्वाब भी थक हार कर सो गए
हर आहट में लगे जैसे तू आए
हम बन के हवा तुझको फिर छू आए

तेर गली से जब गुजरते हैं
उस शोख नजर को तरसते हैं
क्यों लगता  है कि तू रूबरू आए
हम बनके हवा तुझको फिर छू आए

आवाज लगाती हैं गुमनाम सी हसरतें
जवाब मांगती हैं तेरी हर एक शिकायतें
महफिल-ए-'अरमान' में तेरी आरजू आए
हम बनके हवा उनको फिर छू आए