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Tuesday 29 August 2017

न जाने क्या चाहता है ये दिल

न जाने क्या चाहता है ये दिल
जिद करता है, मचलता है, मजबूर करता है

कितना भी रोकने की कोशिश करूं
तेरी ओर ख़्यालों के क़दम बढ़ जाते हैं

तुम्हारी आंखों, तुम्हारी बातों ने
जैसे कोई साज़िश की हो 'अरमान'

वरना ये मौसम ख़ामख़ाह नहीं बदलता
बेवजह नहीं छा जाते ख्वाबों के बादल

पलकों की टहनी में झूलते हुए ख़्वाब
सोचता हूं पत्थर मारके गिरा लूं इन्हें

पर डरता हूं कहीं टूटकर बिखर न जाएं
ये झूलते हुए ही अच्छे लगते हैं,
पलकों की टहनी पर...

10 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" गुरुवार 31 अगस्त 2017 को लिंक की गई है.................. http://halchalwith5links.blogspot.com पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति👌
    आपकी रचनाएँ भावपूर्ण बहुत अच्छी लगी।

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  3. बहुत सुन्दर....

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  4. पलकों की टहनी में झूलते हुए ख़्वाब
    सोचता हूं पत्थर मारके गिरा लूं इन्हें
    बहुत सुंदर !

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  5. उम्दा ! शुभकामनाओं सहित ,आभार ''एकलव्य"

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    1. शुक्रिया ध्रुव जी

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