15 जनवरी 2013 सुबह के पौने आठ बजे कोट लखपत जेल लाहौर में बंद भारतीय कैदी चमेल सिंह जेल परिसर में मौजूद एक नल के नीचे बैठकर कपड़े धो रहे थे। वहां से गुजरने वाले दो हवलदारों और जेल सुप्रिटेंडेंट ने चमेल को वहां कपड़े धोने से मना किया। जेल सुप्रिटेंडेंट ने जातिसूचक टिप्पणी करते हुए उनसे कहा कि क्या ये जेल उनके बाप की है कि कहीं भी बैठकर कपड़े धोने लगोगे। इस बात पर चमेल सिंह के प्रतिक्रिया व्यक्त करने पर वो लोग भड़क गए और उन्हें तबतक पिटते रहे, जब तक चमेल की जान नहीं निकल गई। 48 वर्षीय चमेल जम्मू के अखनूर तहसील के रहने वाले थे और पाकिस्तान ने उनपर जासूसी का आरोप लगाया था। इसके बाद उन लोगों ने मजिस्टेÑट की गैर मौजूदगी में दूसरे भारतीय कैदियों मकबूल अली, मोहम्मद फरीद, कुलदीप कुमार, जावेद, शबू और लखुराम नाथ से उस पेपर पर दस्तखत करवाए, जिसमे ये लिखा था कि चमेल की हार्ट अटैक से मौत हुई है। चमेल सिंह की लाश 12 दिनों तक जिन्नाह हॉस्पिटल के मुर्दाघर में पड़ी रही। ठीक तीन महीने बाद इसी कोट लखपत जेल में सरबजीत सिंह पर दो कैदी ईंट और तश्तरी से हमला करते हैं। सरबजीत को आईसीयू में वेंटीलेटर में रखा गया है और वो जिंदगी और मौत से जूझ रहे हैं। सरबजीत पर हमला करने वाले कैदियों ने सुबह उनके साथ बैठकर रोज की तरह चाय पी थी। जब सरबजीत सिंह को हॉस्पिटल में दाखिल किया गया, तो उन्होंने पुलिस वर्दी की पैंट और एक फटी शर्ट पहन रखी थी। इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता है की जेल में सरबजीत के पास पहनने को कपड़े भी नहीं थे। अफजल गुरु और कसाब की फांसी के बाद भारतीय खूफिया एजेंसी रॉ की सूचना को भी भारत सरकार ने तवज्जो नहीं दी, जिसमें सरबजीत पर हमले की आशंका जताई गई थी। अब भारत सरकार सरबजीत पर हुए हमले का विरोध पाकिस्तान सरकार से दर्ज करा रही है। विपक्ष भी केन्द्र सरकार को कमजोर बता रहा है। पूरे देश में गुस्सा पनपा हुआ है, मीडिया भी सरबजीत ही सरबजीत दिखा रहा है। लेकिन ये सब उस वक्त कहां थे, जब चमेल सिंह को जेल में पीट-पीटकर मार डाला गया। कहां था विपक्ष, कहां था मीडिया। जिस तरह से सरबजीत के लिए आज आवाज उठाई जा रही है, ठीक इसी तरह चमेल मामले में सरकार, विपक्ष, मीडिया और पूरा देश अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पाकिस्तान को बेनकाब करता, तो आज सरबजीत अस्पताल में न होते। क्या चमेल सिंह भारतीय नहीं थे? कोट लखपत वही जेल है, जहां भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी दी गई थी। जुल्फिकार अली भुट्टो को भी इसी जेल में फांसी दी गई थी। इस जेल की अगर वर्तमान हालत पर गौर करें तो पता चलता है कि 4000 लोगों के लिए बनाई गई इस जेल में 17000 कैदी किस तरह जिंदगी से जूझ रहे होंगे। पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को जब कैद किया गया था, तब इस जेल में उनके लिए एक स्पेशल कमरे को खासतौर पर तैयार किया गया था। आइए जरा गौर फरमाते हैं कि भारतीय कैदियों को किन-किन समस्यायों से जूझना पड़ता है पाकिस्तान की जेलों में। जब कैदियों के परिवारों द्वारा इनसे मिलने के लिए दौरा किया जाता है, तो इन्हें जेलों से स्थानांतरित कर दिया जाता है। दशकों से बंद कैदियों और उनके परिवारवालों में शारीरिक परिवर्तन आ जाता है, जिससे कि उनकी शिनाख्त में मुश्किल पैदा होती है। कैदियों की शारीरिक, मनोवैज्ञानिक और चिकित्सा की स्थिति असामान्य है। कई कैदियों ने इस्लाम कुबूल कर लिया, अपने नाम बदल लिए, जिससे की उन्हें ढूंढने में परेशानी होती है। अपने देश, समाज और परिवारवालों की मदद न मिल पाने से कई कैदी अवसाद में चले गए है और पाकिस्तान के वफादार बनकर उनके लिए जासूसी कर रहे है। कई कैदी जेल में कत्ल कर दिए जाते हैं और अवसाद की वजह से बहुत से पागल हो गए है, जो अब अपने परिवारवालों को भी नहीं पहचानते है। जेल स्टाफ और खुफिया एजेंसियां उन्हें जानकारी देने के नाम पर पीटते हैं, पाकिस्तान की भाषा उर्दू होने की वजह से कैदियों को उनसे क्या लिखवाया जा रहा है, ये समझ में नही आता और वो किसी भी पेपर पर दस्तखत कर देते हैं, जिससे उनकी कानूनी लड़ाई कमजोर हो जाती है। खाने में सिर्फ नॉन वेज दिया जाता है, जिसको पाकिस्तानी हो या हिंदुस्तानी, किसी भी धर्म का हो, उसी खाने को खाना पड़ता है। पाकिस्तान का ह्यूमन राइट्स भी ये मानता है की पाकिस्तानी जेलों की स्थिति काफी भयानक है और वहां के कैदी दंगों का नेतृत्व करते हैं। पाकिस्तान का जेल प्रशासन त्योहारों के मौके पर कैदियों से मिलने आनेवाले हर शख्स से मोटी रकम वसूल करते हैं। खैर वजह जो भी हो, लेकिन सरबजीत की इस हालत के लिए पाकिस्तान के साथ-साथ भारत सरकार, विपक्ष, मीडिया और खुद हम सब जिम्मेदार हैं, जो क्रिया पर ही प्रतिक्रिया करना जानते हैं और इसके बाद सब भूल जाते हैं। हम सब को जागना होगा।
Saturday, 27 April 2013
हम सब सरबजीत के गुनाहगार
15 जनवरी 2013 सुबह के पौने आठ बजे कोट लखपत जेल लाहौर में बंद भारतीय कैदी चमेल सिंह जेल परिसर में मौजूद एक नल के नीचे बैठकर कपड़े धो रहे थे। वहां से गुजरने वाले दो हवलदारों और जेल सुप्रिटेंडेंट ने चमेल को वहां कपड़े धोने से मना किया। जेल सुप्रिटेंडेंट ने जातिसूचक टिप्पणी करते हुए उनसे कहा कि क्या ये जेल उनके बाप की है कि कहीं भी बैठकर कपड़े धोने लगोगे। इस बात पर चमेल सिंह के प्रतिक्रिया व्यक्त करने पर वो लोग भड़क गए और उन्हें तबतक पिटते रहे, जब तक चमेल की जान नहीं निकल गई। 48 वर्षीय चमेल जम्मू के अखनूर तहसील के रहने वाले थे और पाकिस्तान ने उनपर जासूसी का आरोप लगाया था। इसके बाद उन लोगों ने मजिस्टेÑट की गैर मौजूदगी में दूसरे भारतीय कैदियों मकबूल अली, मोहम्मद फरीद, कुलदीप कुमार, जावेद, शबू और लखुराम नाथ से उस पेपर पर दस्तखत करवाए, जिसमे ये लिखा था कि चमेल की हार्ट अटैक से मौत हुई है। चमेल सिंह की लाश 12 दिनों तक जिन्नाह हॉस्पिटल के मुर्दाघर में पड़ी रही। ठीक तीन महीने बाद इसी कोट लखपत जेल में सरबजीत सिंह पर दो कैदी ईंट और तश्तरी से हमला करते हैं। सरबजीत को आईसीयू में वेंटीलेटर में रखा गया है और वो जिंदगी और मौत से जूझ रहे हैं। सरबजीत पर हमला करने वाले कैदियों ने सुबह उनके साथ बैठकर रोज की तरह चाय पी थी। जब सरबजीत सिंह को हॉस्पिटल में दाखिल किया गया, तो उन्होंने पुलिस वर्दी की पैंट और एक फटी शर्ट पहन रखी थी। इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता है की जेल में सरबजीत के पास पहनने को कपड़े भी नहीं थे। अफजल गुरु और कसाब की फांसी के बाद भारतीय खूफिया एजेंसी रॉ की सूचना को भी भारत सरकार ने तवज्जो नहीं दी, जिसमें सरबजीत पर हमले की आशंका जताई गई थी। अब भारत सरकार सरबजीत पर हुए हमले का विरोध पाकिस्तान सरकार से दर्ज करा रही है। विपक्ष भी केन्द्र सरकार को कमजोर बता रहा है। पूरे देश में गुस्सा पनपा हुआ है, मीडिया भी सरबजीत ही सरबजीत दिखा रहा है। लेकिन ये सब उस वक्त कहां थे, जब चमेल सिंह को जेल में पीट-पीटकर मार डाला गया। कहां था विपक्ष, कहां था मीडिया। जिस तरह से सरबजीत के लिए आज आवाज उठाई जा रही है, ठीक इसी तरह चमेल मामले में सरकार, विपक्ष, मीडिया और पूरा देश अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पाकिस्तान को बेनकाब करता, तो आज सरबजीत अस्पताल में न होते। क्या चमेल सिंह भारतीय नहीं थे? कोट लखपत वही जेल है, जहां भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी दी गई थी। जुल्फिकार अली भुट्टो को भी इसी जेल में फांसी दी गई थी। इस जेल की अगर वर्तमान हालत पर गौर करें तो पता चलता है कि 4000 लोगों के लिए बनाई गई इस जेल में 17000 कैदी किस तरह जिंदगी से जूझ रहे होंगे। पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को जब कैद किया गया था, तब इस जेल में उनके लिए एक स्पेशल कमरे को खासतौर पर तैयार किया गया था। आइए जरा गौर फरमाते हैं कि भारतीय कैदियों को किन-किन समस्यायों से जूझना पड़ता है पाकिस्तान की जेलों में। जब कैदियों के परिवारों द्वारा इनसे मिलने के लिए दौरा किया जाता है, तो इन्हें जेलों से स्थानांतरित कर दिया जाता है। दशकों से बंद कैदियों और उनके परिवारवालों में शारीरिक परिवर्तन आ जाता है, जिससे कि उनकी शिनाख्त में मुश्किल पैदा होती है। कैदियों की शारीरिक, मनोवैज्ञानिक और चिकित्सा की स्थिति असामान्य है। कई कैदियों ने इस्लाम कुबूल कर लिया, अपने नाम बदल लिए, जिससे की उन्हें ढूंढने में परेशानी होती है। अपने देश, समाज और परिवारवालों की मदद न मिल पाने से कई कैदी अवसाद में चले गए है और पाकिस्तान के वफादार बनकर उनके लिए जासूसी कर रहे है। कई कैदी जेल में कत्ल कर दिए जाते हैं और अवसाद की वजह से बहुत से पागल हो गए है, जो अब अपने परिवारवालों को भी नहीं पहचानते है। जेल स्टाफ और खुफिया एजेंसियां उन्हें जानकारी देने के नाम पर पीटते हैं, पाकिस्तान की भाषा उर्दू होने की वजह से कैदियों को उनसे क्या लिखवाया जा रहा है, ये समझ में नही आता और वो किसी भी पेपर पर दस्तखत कर देते हैं, जिससे उनकी कानूनी लड़ाई कमजोर हो जाती है। खाने में सिर्फ नॉन वेज दिया जाता है, जिसको पाकिस्तानी हो या हिंदुस्तानी, किसी भी धर्म का हो, उसी खाने को खाना पड़ता है। पाकिस्तान का ह्यूमन राइट्स भी ये मानता है की पाकिस्तानी जेलों की स्थिति काफी भयानक है और वहां के कैदी दंगों का नेतृत्व करते हैं। पाकिस्तान का जेल प्रशासन त्योहारों के मौके पर कैदियों से मिलने आनेवाले हर शख्स से मोटी रकम वसूल करते हैं। खैर वजह जो भी हो, लेकिन सरबजीत की इस हालत के लिए पाकिस्तान के साथ-साथ भारत सरकार, विपक्ष, मीडिया और खुद हम सब जिम्मेदार हैं, जो क्रिया पर ही प्रतिक्रिया करना जानते हैं और इसके बाद सब भूल जाते हैं। हम सब को जागना होगा।
करनी होगी बच्चियों की हिफाजत
आसिफ इकबाल
आखिर कहां है वो कानून जो महिलाओं के लिए दिल्ली गैंगरेप के बाद बनाया गया था। उन आरोपियों को तीन महीने के अन्दर सजा की बात हुई थी, लेकिन अभी भी उनका कुछ नहीं हुआ। बलात्कार पीड़ित के लिए स्पेशल डॉक्टरों की सेल बनाने पर सहमति हुई थी, जो अभी तक अमल में नहीं आई। कहां गए वो एक हजार करोड़ रुपये, जो महिला सुरक्षा के लिए बजट में पारित किए गए थे। दिल्ली में एक बार फिर दरिंदगी ने अपना सिर उठाया और इस बार इस दरिंदगी का शिकार पांच साल की मासूम बच्ची हुई। वो बच्ची, जिसे हर आदमी भैया, चाचा या मामा की तरह दिखता है। दिल्ली पुलिस गैंगरेप कांड के बाद फिर सो गई थी। इस दौरान और बलात्कार की कई वारदातें दिल्ली में हुईं, लेकिन इस घटना ने एक बार फिर बेशर्म पुलिस प्रशासन पर सवाल खड़े कर दिए हैं। लगता है देश की पुलिस को जगाने के लिए धरने-प्रदर्शन करना जरूरी हो गया है। एक तरफ तो बच्ची के साथ बलात्कार होता है, तो दूसरी तरफ उसके मां-बाप को पुलिस दो हजार रुपये देकर मुह बंद कराना चाहती है और बेशर्मी की हद पार करते हुए उस बच्ची के मां-बाप से कहती है जाओ खुद ढूंढ लो जाकर। इस कांड से ठीक दो दिन पहले अलीगढ़ में भी एक पांच साल की बच्ची की बलात्कार के बाद हत्या कर दी जाती है और इंसाफ मांगने पर उसके घरवालों को सड़क पर दौड़ा -दौड़ाकर पुलिस लाठियों से पीटती है और ऊपर से कहती है कि बच्ची के साथ रेप होते किसने देखा है।
आखिर कब तक पुलिस अपनी जिम्मेदारी से बचती रहेगी। पुलिस पर तब तक लगाम नहीं कसी जा सकती, जब तक अपने काम के प्रति पुलिस नेतृत्व की जवाबदेही तय नहीं की जाएगी। पुलिस नेतृत्व से जवाब मांगना जरूरी है। इन्हें सस्पेंड या बर्खास्त करने के बजाए इन पर मुकदमा चलाया जाना चाहिए, ताकि इन्हें भी सजा का एहसास हो। आइए जरा गौर फरमाते हैं कि पुलिस क्या है? गृहरक्षा विभाग के अन्तर्गत आनेवाला विभाग होने से देश की कानून-व्यवस्था को संभालने का काम पुलिस के हाथ ही होता है। आपराधिक गतिविधियों को रोकने, अपराधियों को पकड़ने, अपराधियों के द्वारा किए जानेवाले अपराधों की खोजबीन करने, देश की आंतरिक सम्पत्ति की रक्षा करने और जो अपराधी हैं और उनका अपराध साबित करने के लिए पर्याप्त साक्ष्य जुटाना और राजनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण व्यक्तियों की सुरक्षा पुलिस का कार्य है। लेकिन अब इनका काम सिर्फ राजनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण व्यक्तियों की सुरक्षा तक ही सीमित रह गया है। दरअसल, देश के हर कोने में बलात्कार की घटनाएं होती हैं। उन सभी घटनाओं को दबाने का काम भी पुलिस ही करती है। यहां 2008-09 की एक घटना का जिक्र जरूरी लगता है, जब मेरी पत्रकारिता की दाढ़ी-मूंछ निकल रही थी। जिला कानपुर देहात के थाना गजनेर से गुजर रहा था कि पुलिस थाने के बाहर खड़े एक गरीब किसान ने मुझे रोककर बताया कि उसकी सात साल की बेटी के साथ बलात्कार किया गया है और थानेदार साहब रिपोर्ट नहीं लिख रहे हैं। तब मैं एक टीवी चैनल को खबरें भेजा करता था। मेरे साथ कैमरामैन भी था, शायद उसी को देखकर उस किसान ने समझ लिया था कि हम पत्रकार हैं।
अक्सर हम पत्रकारों को इंसान के दु:ख दर्द से पहले खबर दिखती है। जब हम थाने के अन्दर पहुंचे, तो थानेदार साहब मुझे नहीं जानते थे। मैंने उनसे कहा कि इस आदमी की बेटी के साथ बलात्कार हुआ है आप रिपोर्ट क्यों नहीं लिखते? थानेदार साहब ने रिपोर्ट लिखने से ये कहते हुए इनकार कर दिया कि उस लड़की के साथ बलात्कार नहीं हुआ है। हमारी और उनकी बात इतनी बढ़ गई कि थानेदार साहब ने हमारा कैमरा छीन लिया और हमसे बदसलूकी करने लगे। जैसे-तैसे निपटारा कराकर हम वहां से निकले और सीधे अस्पताल पहुंचे जहां पीड़ित भर्ती थी। डॉक्टर ने बताया कि लड़की के साथ बलात्कार नहीं हुआ है, लेकिन जब वहां मौजूद एक नर्स से चुपके से पूछा तो उसने बताया कि लड़की के साथ बहुत क्रूरता से बलात्कार किया गया है। मैंने खबर भी चलाई, लेकिन उसका कोई फायदा नहीं हुआ, क्यूंकि बलात्कार करने वाला स्थानीय विधायक का कोई खास बंदा था। चूंकि मामला एक छोटे से गांव से जुड़ा था, जहां न तो विरोध-प्रदर्शन करने वाले होते हैं और न ही मीडिया का वो रोल देखने को मिलता है, जो दिल्ली जैसे शहरों में मिलता है। गरीब की बेटी थी, जिसकी आवाज हुकूमत के कानों तक नहीं पहुंच सकी। लेकिन अगर पुलिस चाहती, तो उस गुनाहगार को सजा जरूर मिल सकती थी।
आपको ये बात जानकर हैरानी होगी कि जिस थानेदार की मैं बात कर रहा हूं, वो कुंडा के डीएसपी हत्याकांड में भगोड़े साबित किए गए पुलिस अधिकारियों में से एक हैं और आज निलंबित होकर घर में मस्त हैं। समाज को बच्चियों की हिफाजत करनी होगी। दहेज की वजह से कन्या भ्रूण हत्या को बढ़ावा मिला है, अगर बच्चियों के साथ ऐसे ही अमानवीय बर्ताव होते रहे तो जो लोग कन्या भ्रूण हत्या से दूर हैं, वो भी इससे अछूते नहीं रहेंगे। लाख कानून बना दिए जाएं, लाख फास्ट ट्रैक कोर्ट बना दिए जाएं, लेकिन जब तक पुलिस अपने कर्तव्यों का निर्वहन सही से नहीं करेगी, तबतक किसी भी अपराधी को कोई भी कोर्ट सजा नहीं दे सकता, क्यूंकि प्रथम दृष्टया पुलिस ही घटना के सारे सबूत इकठ्ठा करती है। जिस दिन पुलिस सुधर जाएगी, उसी दिन से शैतान इस समाज से गायब हो जाएंगे।
(लेखक द सी एक्सप्रेस से जुड़े हैं)
Tuesday, 2 April 2013
कुछ तो बात होगी इन बंदों में
अन्ना हजारे जन्म 15 जून। अरविंद केजरीवाल, जन्म 16 जून। अ अक्षर से शुरू होने वाले इन दो नामों की जन्मतिथि की निकटता के अलावा अ शब्द से ही शुरू होता है आंदोलन। अन्ना, अरविंद और आंदोलन अब एक दूसरे के पूरक हो गए हैं। देश में कहने को तो सवा अरब से ज्यादा लोग रहते हैं, लेकिन सिर्फ ये दो नाम ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सुनाई दे रहे हैं। जो काम विपक्ष को करना चाहिए , वो काम 75 साल के अन्ना और 44 साल के अरविंद कर रहे हैं। कुछ तो बात होगी इन बंदों में जिसकी वजह से प्रतिष्ठित पत्रिका टाइम ने दुनिया के प्रभावशाली लोगों में भारत से सिर्फ अरविंद केजरीवाल को ही चुना। अमेरिका के वार्टन इंडिया इकोनॉमिक फोरम ने लेक्चर के लिए केजरीवाल को आमंत्रित किया। भले ही सरकार को भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन कर रहे अन्ना हजारे गलत नजर आ रहे हों, लेकिन यही भारत सरकार उन्हें पद्मश्री व पद्म भूषण सम्मान से नवाज चुकी है। दरअसल मौजूदा हालात में सरकार अन्ना और केजरीवाल से पूरी तरह घबराई हुई नजर आ रही है।
23 मार्च से दिल्ली में बिजली-पानी के बढ़े बिल के खिलाफ केजरीवाल सविनय अवज्ञा आंदोलन कर रहे हैं। दिल्ली सरकार भले ही इसे 'फ्लॉप शो' मान रही हो, लेकिन लगभग आठ लाख लोगों का इस आंदोलन से जुड़ना व पौने तीन सौ आॅटो रिक्शा में आठ लाख चिट्ठियां ले जाया जाना इस बात की गवाही देता है कि दिन ब दिन सरकार की मुसीबतें बढ़ती जा रही हैं। इसी
क्रम में दिल्ली पुलिस का इन आंदोलनकारियों को गुमराह करके शीला दीक्षित के निवास से दूर करना ये दर्शाता है कि सरकार केजरीवाल से दहशत में है। केजरीवाल ने जिस अंदाज में शीला दीक्षित को चुनौती देते हुए कहा कि सरकार उन्हें रोकने की कोशिश न करे, शायद सरकार को ये नहीं पता कि हम किस मिट्टी के बने हुए हैं, उससे तो यही लगता है कि वो किसी भी तरह के समझौते के मूड में नहीं हैं। दिल्ली सरकार भी अब दोराहे पर खड़ी है, अगर केजरीवाल की बातों को मान लिया गया, तो दिल्ली की जनता की सहानुभूति उनकी आम आदमी पार्टी को मिलेगी, जो दिल्ली में कांग्रेस को नुकसान पहुंचा सकती है। दूसरी ओर, यदि आंदोलन के दौरान केजरीवाल को कुछ हो गया तब भी सरकार मुसीबत में पड़ सकती है। दूसरी ओर अन्ना ने भी भ्रष्टाचार विरोधी जनआंदोलन के तहत पंजाब से देशव्यापी जनतंत्र यात्रा शुरू कर दी है।
यह यात्रा भी केंद्र व राज्य सरकारों के लिए मुसीबत बन सकती है और इतिहास गवाह है कि जो आंदोलन अन्ना ने चलाए हैं, उनमें चाहे राज्य हो या केन्द्र सरकार, दोनों को झुकना पड़ा है, चाहे 1991 का महाराष्ट्र भ्रष्टाचार विरोधी जन आंदोलन हो या सूचना का अधिकार कानून। बहरहाल, सरकार लोकसभा चुनाव से पहले अन्ना व केजरीवाल को कोई भी ऐसा मौका देना नहीं चाहती कि इसका असर उनकी सत्ता की दावेदारी पर पड़े। दूसरी ओर इन दो योद्धाओं ने देश की राजनीतिज्ञों से अकेले ही लड़ने का एक बार फिर मन बना लिया है।
23 मार्च से दिल्ली में बिजली-पानी के बढ़े बिल के खिलाफ केजरीवाल सविनय अवज्ञा आंदोलन कर रहे हैं। दिल्ली सरकार भले ही इसे 'फ्लॉप शो' मान रही हो, लेकिन लगभग आठ लाख लोगों का इस आंदोलन से जुड़ना व पौने तीन सौ आॅटो रिक्शा में आठ लाख चिट्ठियां ले जाया जाना इस बात की गवाही देता है कि दिन ब दिन सरकार की मुसीबतें बढ़ती जा रही हैं। इसी
क्रम में दिल्ली पुलिस का इन आंदोलनकारियों को गुमराह करके शीला दीक्षित के निवास से दूर करना ये दर्शाता है कि सरकार केजरीवाल से दहशत में है। केजरीवाल ने जिस अंदाज में शीला दीक्षित को चुनौती देते हुए कहा कि सरकार उन्हें रोकने की कोशिश न करे, शायद सरकार को ये नहीं पता कि हम किस मिट्टी के बने हुए हैं, उससे तो यही लगता है कि वो किसी भी तरह के समझौते के मूड में नहीं हैं। दिल्ली सरकार भी अब दोराहे पर खड़ी है, अगर केजरीवाल की बातों को मान लिया गया, तो दिल्ली की जनता की सहानुभूति उनकी आम आदमी पार्टी को मिलेगी, जो दिल्ली में कांग्रेस को नुकसान पहुंचा सकती है। दूसरी ओर, यदि आंदोलन के दौरान केजरीवाल को कुछ हो गया तब भी सरकार मुसीबत में पड़ सकती है। दूसरी ओर अन्ना ने भी भ्रष्टाचार विरोधी जनआंदोलन के तहत पंजाब से देशव्यापी जनतंत्र यात्रा शुरू कर दी है।
यह यात्रा भी केंद्र व राज्य सरकारों के लिए मुसीबत बन सकती है और इतिहास गवाह है कि जो आंदोलन अन्ना ने चलाए हैं, उनमें चाहे राज्य हो या केन्द्र सरकार, दोनों को झुकना पड़ा है, चाहे 1991 का महाराष्ट्र भ्रष्टाचार विरोधी जन आंदोलन हो या सूचना का अधिकार कानून। बहरहाल, सरकार लोकसभा चुनाव से पहले अन्ना व केजरीवाल को कोई भी ऐसा मौका देना नहीं चाहती कि इसका असर उनकी सत्ता की दावेदारी पर पड़े। दूसरी ओर इन दो योद्धाओं ने देश की राजनीतिज्ञों से अकेले ही लड़ने का एक बार फिर मन बना लिया है।
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