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Wednesday 3 June 2015

अब निकलना है हमें दूर कहीं

अब निकलना है हमें दूर कहीं
फ़ासलों का वक्त आ गया
समेट लो अपना-अपना सामान
कहीं रह न जाए कोई चीज़
जो सबब बन जाए पछताने का

मैंने तो अपना ग़म उठा लिया
ये लो अपने चेहरे की खुशी
बड़ी क़ीमती है तुम्हारे लिए
हमेशा इसे साथ रखना
ख़ूबसूरत जो लगती हो इसके साथ

चलो अपना-अपना मज़हब अलग करो
कितने दिन से एक साथ पड़े-पड़े उलझ गए हैं
समझ नहीं आता अब सुलझेंगे कैसे
न जाने किसका कौन सा मज़हब है
पर अपना-अपना ही ध्यान से लेना
यही तो है जो दिलाएगा सच्चा साथी
ऐसा ही ज़माने के लोग कहते हैं

ये मोहब्बत तो बड़ी भारी है
इसको कैसे लो जाओगे
ख़ैर इसे यहीं रहने दो
शायद अब ये तुम्हारे काम की नहीं
बेवजह का बोझ लादे घूमोगे

ओफ्फो कितनी धूल जम गई है ख़्यालातों में
पुराने जो हो गए हैं
इन कमबख़्तों को यहीं छोड़ दो
खामखां परेशान करेंगे तुम्हें

लो यादों को छांट लो
जो तुम्हें अच्छी लगें रख लो
बाक़ी यहीं पड़ी रहने दो
ये कहीं ले जाने के लायक़ नहीं

अरे इन अरमानों का क्या करना है
इनकों तो बांटा भी नहीं जा सकता
बिना एक-दूसरे के ये मुकम्मल भी तो नहीं हो सकते

चलो अब बहुत सामान हो गया
कुछ रह तो नहीं गया, ठीक से देख लो
हां, रह तो गया है
तुमसे बिछड़ना
लो वो भी हो गया
‘अरमान’ अब कहीं खो गया...

6 comments:

  1. अरे इन अरमानों का क्या करना है
    इनकों तो बांटा भी नहीं जा सकता
    बिना एक-दूसरे के ये मुकम्मल भी तो नहीं हो सकते
    अरमान साहब!
    जवाब नही क़लम की दानिश्मंदी और जज़्बात-पसंदी का!!!
    अरमान तो बंट नही सकते, अल्बत्ता सहेजे जा सकते हैं
    कितना ही बांट्बूंट कर छुट्टी पायें
    कमब्ख्त कभी ना कभी रुला ही देते हैं:
    “ मेरा कुछ समान तुम्हारे पास पड़ा है.....”
    सावन के कुछ भीगे भीगे दिन, और
    खतों में लिपटी यादें कहां बंट पाती हैं !!!
    समझ आती है मुझे, बहुत ही सिसकते हुए क़लम जब कह्ती है:
    मैंने तो अपना ग़म उठा लिया
    ये लो अपने चेहरे की खुशी
    बड़ी क़ीमती है तुम्हारे लिए
    हमेशा इसे साथ रखना
    ख़ूबसूरत जो लगती हो इसके साथ
    सचमुच मोहब्बत बहुत भारी है,
    इसे हल्का करने के लिये ही तो सजाई गयी हैं
    दुकाने मज़्हब और सियासत की
    आम आदमी को जब आदमी होना नसीब नही तो
    ‘आशिक़’ होना तो दूर की बात है:
    चलो अपना-अपना मज़हब अलग करो
    कितने दिन से एक साथ पड़े-पड़े उलझ गए हैं
    समझ नहीं आता अब सुलझेंगे कैसे
    न जाने किसका कौन सा मज़हब है
    पर अपना-अपना ही ध्यान से लेना
    यही तो है जो दिलाएगा सच्चा साथी
    ऐसा ही ज़माने के लोग कहते हैं

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  2. “ पंछी, नदिया, पवन के झौंके
    कोई सरहद ना इन्हें रोके
    सरहदें इंसानों के लिये हैं
    सोंचो तुमने और मैने क्या पाया
    इंसां होकर......”

    अ‍रमी!!! क़ैस और रान्झा बनने की खातिर
    अभी स्कूल नही खोले जाते ....ये भी रब का शुक्र है...
    व र ना....इतनीखूबसूरत नज़्मे
    कैसे मिल पातीं!!!

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  3. और एक आखिरी कमेंट!
    पगले!!! रुलाओगे क्या!!! 

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