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Sunday 5 November 2017

किसी के घर उजाले ही उजाले हैं

किसी के घर उजाले ही उजाले हैं
किसी की छत तले अंधेरे काले हैं
ये कैसी तक्सीमात तेरी मौला
किसे के पैर हवाओं में 
किसे के पैर में छाले हैं

भूख से सिसकती है ज़िंदगी कहीं
कहीं थाली में शाही निवाले हैं
किसी के महलों में बिखरी रौनक
कहीं खंडहर में मकड़ियों जाले हैं

ग़म बचकर निकलते हैं कहीं
कहीं मुस्तकिल डेरा डाले हैं
ख़रीद ली जाती हैं सांसें कहीं
कहीं ज़िंदगी मौत के हवाले है

फटे लिबास हैं शौक कहीं
कहीं बदन पे चुनरी के लाले हैं
'अरमान' हो रहे हैं पूरे कहीं
कहीं ना-उम्मीदी के नाले हैं

देख रहा है तो इंसाफ़ कर मौला
क्यों ख़ामख़ा में दुनिया संभाले है...

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