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Wednesday, 16 July 2014

खाक होकर भी मैं किस कदर जल गया...

खाक होकर भी मैं किस कदर जल गया
मेरा मुंसिफ ही मेरा कातिल निकल गया
बड़े शान से जिसकी वफा पर इतराते थे 'अरमान'
बेरुखी की कालिख मेरे माथे परे मल गया

मेरी तो सुबहो शाम थी सिर्फ तेरी चाह में
शायद वो शिद्दत नहीं थी मेरी आह में
तू एक खूबसूरत आफताब था जो ढल गया
खाक होकर भी मैं किस कदर जल गया

बेचैन हूं, बेताब हूं
यादों की धुंधली एक किताब हूं
पन्नों से गुलाब की तरह निकल गया
खाक होकर भी मैं किस कदर जल गया

मरहम लगाने वाला चला गया
जिंदगी को मौत से मिला गया
आखिरी वक्त भी आंख से तेरा आंसू निकल गया
खाक होकर भी मैं किस कदर जल गया

कोई प्यार बो रहा है...

कोई प्यार बो रहा है, कोई नफरतें बो रहा है,
ग़फ़लत की चारपाई पर कोई पैर पसारकर सो रहा है,

उठ नींद से जाग, भाग बंदे भाग,
देख तेरी ज़िंदगी कौन जी रहा है,

बेवजह क्यों शरीक होना तमाशायी दुनिया में,
ये खेल तो पल-पल किसकदर रंग बदल रहा है,

रिश्तों की नाजुक डोर को ज़रा ज़ोर से पकड़,
इस दौर में इंसान मय अहलो अयाल (सपरिवार) खो रहा है,

जिंदा रहेगा सिर्फ उसी का वजूद,
जो ज़ख़्म सी रहा है और ज़हर पी रहा है,

तुम क्यों इतने फ़िक्रमंद  लगते हो 'अरमान',
वो देखो कितनी जोर से कोई शख़्स कह रहा है...

Tuesday, 15 July 2014

दिल कुछ कहना चाहता है


दिल कुछ कहना चाहता है, कुछ इसकी भी सुन तो लो,
 कब से दर पर बैठा है, कुछ लम्हें तुम भी चुन लो,

जब से तुमको देखा है, तेरी सूरत ने मुझको घेरा है,
 बढ़ती दिल की उलझन है ये मेरा है या तेरा है

 इश्क की गलियों में अक्सर मेरी बातें भी होती हैं,
आरजू-ए-मोहब्बत में मेरी वो आंख भर-भर रोती हैं,

हुस्न की गलियों में तेरे चर्चे मैंने होते देखे हैं,
अच्छे खासे बंदे भी होश ओ हवास खोते देखे हैं,

खुदा के इस बंदे पर अपनी रहमत की बौछार करो
शर्म-हया रखकर कोने में इस 'अरमान’ को प्यार करो

Friday, 11 July 2014

जो बीत गए पल वो कल कहां से लाऊं

   
 जो बीत गए पल वो कल कहां से लाऊं
     जिस बात में थे शामिल वो बात कहां से लाऊं
     जिस खुशी में थे शामिल, वो हंसी कहां से लाऊं
     जिस गम में थे शामिल, वो आंसू कहां से लाऊ
     जो बीत गए पल वो कल कहां से लाऊं
     जिस वफा में थे शामिल वो प्यार कहां से लाऊं
     जिस खता में थे शामिल वो दर्द कहां से लाऊं
     जो बीत गए पल वो कल कहां से लाऊं
     जिस करार में थे शामिल वो इंतजार कहां से लाऊं
     जिस खुमार में थे शामिल वो दीदार कहां से लाऊं
     जो बीत गए पल वो कल कहां से लाऊं

जो था अपना ग़ैर लगने लगा है

सबकुछ खामोश लगने लगा है
जो था अपना ग़ैर लगने लगा है
अब उनसे और क्या उम्मींद करें 'अरमान'
वक्त भी उसका गुलाम लगने लगा है

दीवार-ओ-दर क़ैदखाने हैं
जीने के तो सिर्फ़ बहाने हैं
ये चांद भी आग लगने लगा है
जो था अपना ग़ैर लगने लगा है

उम्मीद थे तुम, आरजू थे तुम
संग जीने की जुस्तजू थे तुम
                                         ख्यालों में बंदिशों का पहरा लगने लगा है
जो था अपना ग़ैर लगने लगा है

पल-पल का जिसे मेरा ख्याल था
बिन मेरे जीना जिसका मुहाल था
बेगानों सी बात करने लगा है
जो था अपना ग़ैर लगने लगा है....

Thursday, 10 July 2014

एक पल भी तेरे बिना जिया न जाए

तेरा तस्व्वुर मेरा जहन महका जाए
एक पल भी तेरे बिना जिया न जाए
गम-ए-जुदाई का आलम न पूछो
जैसे सांसों को जिस्म से जुदा किया जाए

लम्हें-लम्हें में बसे हो तुम
हौले-हौले से कुछ कहते हो तुम
चलो अब फासलों को मुख्तसर किया जाए
एक पल भी तेरे बिना जिया ना जाए

दिन-रातों के बड़े-बड़े समंदर हैं
जितने गम बाहर उतने अंदर हैं
शायद मेरी आवाज तेरे कानों तक जाए
एक पल भी तेरे बिना जिया न जाए

रुतबा तो आपकी जुदाई का बुलंद है
आपकी अदाएं भी बड़ी हुनरमंद है
'अरमान' भी खड़ा है मोहब्बत में सिर झुकाए
एक पल भी तेरे बिना जिया न जाए

Saturday, 14 June 2014

इजहार-ए-मोहब्बत की हिम्मत चलो हम भी करते ...

इजहार-ए-मोहब्बत की हिम्मत चलो हम भी करते हैं
उस चौखट को देखें जहां हजारों दम निकलते हैं
जरा कमजोर हैं तालीम-ए-मोहब्बत में अरमान
बस यही सोचकर तो इश्क के इम्तेहान से डरते हैं

मन लगाकर पढ़ा है उसकी आंखों को
जेहन में रखा है उसकी बातों को
उसकी आदतों की भी नकल दिन रात करते हैं
बस यही सोचकर तो इश्क के इम्तेहान से डरते हैं

बस्ते में पड़ी रहती है हर पल की किताब
ढूंढते रहते हैं उसमें हर सवाल का जवाब
पन्नों के मुह से भी कहीं अल्फाज निकलते हैं
बस यही सोचकर तो इश्क के इम्तेहान से डरते हैं

इस मदरसे में उल्फत का उस्ताद कोई नहीं
जो लिख दिया, जो पढ़ लिया बस वही सही
यहां से नाकामी की डिग्रियां लेकर ही सब निकलते हैं
बस यही सोचकर तो इश्क के इम्तेहान से डरते हैं।।।
- अरमान आसिफ इकबाल