www.hamarivani.com

Wednesday 14 January 2015

जब हमनवा के खयालात बदल जाते हैं

जब हमनवा के खयालात बदल जाते हैं
हर रिश्ते में मतलब नज़र आते हैं
कसूर हो सकता है मेरे भरोसे का
वो भी अब नाज़ कहाँ उठाते हैं

आदत सी हो गयी थी
के तू सह लेगा मेरे गुस्से को
मुस्करा के टाल देगा ये सोच के
कि इसकी तो आदत है बड़बड़ाने की
लेकिन शायद नहीं रही वो आदत भी तुम्हारी
अब क्यों सुनोगे तुम बात हमारी
क्या तुम्हे भी लग गयी है मेरी बीमारी

लड़ने लगे हो, बिगड़ने लगे हो
मेरी तरह तुम भी झगड़ने लगे हो
अचानक ज़िंदगी का फूल खिल गया
प्यार में तुम्हे आत्मसम्मान मिल गया

इश्क़ में आत्मसम्मान की जगह कहाँ होती है
दो दिलों में ये घुस जाये तो ज़िंदगी रोती है

फिर कैसे एक दूसरे को संभालेंगे
 गुस्सा, आत्मसम्मान हमे मार डालेंगे

चलो रिश्ता अब और न निभाओ
लेकिन मेरी बीमारी खुद को न लगाओ
मैं इसकी मार से बहुत कुछ हारा हूँ
हद से ज़्यादा मोहब्बत का मारा हूँ

तेरी ज़िंदगी का बदनुमा एहसास हूँ
तू बड़ी अच्छी हे चिट्ठी मैं थोड़ा बदमाश हूँ...





8 comments:

  1. प्रेम और आत्मसमान दोनों में प्रतिस्पर्धा कहाँ ... साथसाथ चलते हैं दोनों ...

    ReplyDelete
  2. दिल और दिमाग की रस्साकशी को बड़ी खूबसूरत अभिव्यक्ति दी है ! सुन्दर प्रस्तुति !

    ReplyDelete