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Friday 1 August 2014

मेरे दिल से खुद को निकालों तो जानूं

अपने दिल से मुझे निकाला, तो क्या बात हुई
मेरे दिल से खुद को निकालों तो जानूं
इश्क-ए-जहां में मैं तेरे लिए अजनबी सही
इस जिगर के मकान का मालिक मैं तुझे मानूं

कुछ इस तरह से तूने इस पर कब्जा किया है
हर पल सांसों ने जिंदगी से सौदा किया है
फिर कैसे तुझे अपनी मौत का सौदागर मानूं
मेरे दिल से खुद को निकालों तो जानूं

मेरा बनकर मेरे दिल में रहता है
हर दर-ओ-दीवार से कुछ कहता है
खुलेआम इजहार-ए-मोहब्बत करे तो मानूं
मेरे दिल से खुद को निकालों तो जानूं

कभी अपनी तहजीब को धोखा दे
होके बेपर्दा तमन्नाओं को एक मौका दे
मेरी तरह अपने भी 'अरमान' सजा तो मानूं
मेरे दिल से खुद को निकालों तो जानूं

10 comments:

  1. बहुत खूब अरमान साहब !

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  2. अपने दिल से मुझे निकाला, तो क्या बात हुई
    मेरे दिल से खुद को निकालों तो जानूं
    वाह .... बेहतरीन

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    1. सादर आभार अनुषा,,,

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  3. प्रेम के कुछ अनछुए पहलुओं को लेकर बुनी ग़ज़ल ... बहुत ही लाजवाब ...

    Recent Post …..विषम परिस्थितियों में छाप छोड़ता लेखन -- कविता रावत :)

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  4. प्रभावशाली अभिव्यक्ति अरमान जी ! बहुत सुन्दर !

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    1. सादर आभार साधना जी

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  5. बहुत खूब ... हमारे दिल में कोई दूसरा कैसे कुछ कर सकता है ...
    अच्छा ख्याल ...

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    1. सादर आभार दिगंबर जी,,

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