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Sunday, 27 July 2014

मैं व्याकुल हुई जाऊं...

सहज सरल तुम्हरी छवि
जिस पर भटकत जाऊं
मोहन तुम बंसी धरो
मैं व्याकुल हुई जाऊं

ब्रज मे घूमत फिरै हो
बैठी मैं यमुना के तीर
सब गोपियन के प्रेमी तुम
समझ न आवै हमरी पीर

हमरे ह्रदय की पीड़ा का
तुमका सुध कब आवे है
कह दूंगी मैया से जाके
कान्हा बड़ा सतावे है

इस कोमल काया पर
तुम कब दृष्टि डालोगे
आस है अपने मन मंदिर में
प्रेम का दीप जला लोगे...


Saturday, 26 July 2014

कभी सुना है तुमने यादों को

कभी सुना है तुमने यादों को
 ख़ूब हंसती हैं, ख़ूब रोती हैं
 कभी महफ़िल, तो कभी तन्हाई में बोलती हैं
हां, शायद तुमने भी सुना होगा
 कल ही तो आईं थीं तुम्हारे ज़हन के कोठे पर
 पानी लेकर आईं थी अश्कों की झील से
सहर तकिए पर पड़ी थी कुछ बूंदे
अरे वो देखो तुम्हारे पुराने मकां में कौन है
बचपन तुतलाकर कुछ कहना चाहता है
किसी की उंगली पकड़कर लड़खड़ाते कदम किसके हैं
दीवारों की तख़्ती मुंह चिढ़ा रही हैं
नन्हे हाथों के हरफ़ मुस्कुरा रहे हैं
सच है, बच्चा तो हूं मैं,
सब कहते हैं, बच्चों जैसी बातें करता हूं
बड़ी हमदर्द होती हैं ये यादें
जब कभी तबियत नासाज़ हो जाती है
परदेस में बैठी मां को साथ ले आती हैं
तसल्ली हो जाती है अपनों को करीब पाकर
बड़ी बड़बोली भी होती हैं यादें
बिना बताए बेधड़क चली आईं
और झोले से निकालकर बैठ गईं अपना चिट्ठा
सफ़े पर मेरी ख़ूबसूरत मोहब्बत अंगड़ाई ले रही थी
वैसी ही है जैसे छोड़कर आया था
पाकीज़ा, शर्मीली, सादगी की ज़िंदगी जी रही थी
इंतज़ार की चुनरी का रंग भी नहीं उतरा था
शायद उसके 'अरमान' की मोहब्बत का रंग गहरा था...

Thursday, 24 July 2014

हर पल ने किया जिक्र तेरा...

हर पल ने किया जिक्र तेरा
अब मुझे करार नहीं आता
खामोशी भी शोर मचाती है
क्यों मुझमें तू है समा जाता

आलम तो देखो हिज्र का
खुद से परदा करते हैं
थमी-थमी सी है धड़कन
फिर भी यूं दम भरते हैं

मेरे जैसे जाने कितने
यादों में तेरी खोए हैं
जाने कितने दीवानों के
दिल में कांटे बोए हैं

कुछ तो मिसाल कायम करो
इस दुनिया में हमदर्दी की
और कितने कत्ल करोगे
हद ही कर दी बेदर्दी की

यूं तो तुमने कह डाला
दिल में 'अरमान' कोई नहीं
सुर्ख आंखें सच कह जाती हैं
जिसके लिए तू सोई नहीं...

Monday, 21 July 2014

तेरी सांसों की तपिश मेरी सांसों में है बाकी

तेरी सांसों की तपिश मेरी सांसों में है बाकी
तेरे नैनों ने बना दिया है मुझे साकी
होशवालों में अब मैं शुमार कहां
ख़बर नहीं रही मुझको इस जहां की

वो खूबसूरत आंचल जो तुमने लहरा दिया
गुजरते वक्त को कुछ इस तरह ठहरा दिया
जैसे किसी मर्ज को जरूरत होती है दवा की
ख़बर नहीं रही मुझको इस जहां की

तेरी रौनक से आ जाता है आइनों में नूर
सादगी ऐसी कि जल जाए जन्नत की हूर
‘अरमान’ बदल गई है ख़ुदाई खुदा की
ख़बर नहीं रही मुझको इस जहां की

Sunday, 20 July 2014

बेरोजगारी की लट्ठमार होली (व्यंग्य)

अरमान...

घसीटे गुस्से में ऐसे बड़बड़ाता चला जा रहा था, जैसे सीधे जाकर कोई नई क्रांति लिख देगा। वैसे घसीटे के लिए ये कोई नई बात नहीं थी, ये तो उसकी खानदानी आदत है। इसके पिता भी सामाजिक जंगी थे। सोशल सिस्टम से इतनी जंग लड़ी कि घर के सामानों में ज़ंग लग गई। बेचारे घसीटे के पिता लोटेलाल नई क्रांति लिखते-लिखते सरकारी अस्पताल के मृत्यु पंजीकरण रजिस्टर में अपना नाम लिखा बैठे। गए थे सरकारी अस्पताल की बदहाल व्यवस्था पर धरना देने, अस्पताल में पानी इतना भरा था कि पैर फिसला और खुद ही धरे रह गए। सिर पर टूटी दीवार का एक पत्थर लगा और उनके जिस्म की आक्सीजन बाहर आकर प्रदूषण बन गई। लगता है दिमाग की उसी चोट ने घसीटे के  दिमाग को प्रभावित कर रखा है। इसमें घसीटे को क्या दोष देना। चलो पूछा जाए आखिर माजरा क्या है जो घसीटे इतना गुस्सा है।


 ‘‘अरे घसीटे, क्यों भांप के इंजन की तरह हांफ रहे हो, आखिर माजरा क्या है मुझे भी तो बताओ?’’ घसीटे ने गुस्से से झम्मन की तरफ देखा और बोला, ‘‘देखो,  यार झम्मन एक तो वैसे भी मेरी चादर फटी पड़ी है और ऐसी फटी है कि उसकी रफू करने वाला कोई नहीं है। और तुम हो कि’’....झम्मन ने घसीटे के गुस्से को भांपते हुए अपने चेहरे को अपने जज्बातों से तुरंत डिस्कनेक्ट किया और गंभीर होकर पूछा, ‘‘आखिर बात क्या है? ’’ घसीटे: ‘‘क्या बताएं झम्मन, तुम्हें तो पता है कि मैंने कितनी मेहनत से पढ़ाई-लिखाई की, क्या-क्या नहीं किया डिग्री पाने के लिए। स्कूल में मस्टराइन की सब्जी लाता था, उनके बच्चे को सुसु कराता था। माट साब की साइकिल धोता था, राशन की लाइन में लगकर उनका मिट्टी का तेल भी मैं लाता था। दिन-दिन भर धोबी के गधे की तरह लगा रहता था और जब थोड़ा बहुत टाइम मिलता था, तो सो जाता था। पढ़ने का समय नहीं मिलता था फिर भी मैंने डिग्री हासिल कर ली। और इस डिग्री ने ऐसी गत बनाई कि पूरा बदन टूट रहा है।’’ झम्मन ने आश्चर्य से पूछा, ‘‘घसीटे डिग्री का बदन टूटने से क्या ताल्लुक?’’ घसीटे ने चिल्लाते हुए कहा, ‘‘यार लगता है महंगाई बढ़ने से तुम्हारी रोटी के लाले पड़ गए हैं। तभी तुम फोकट में मेरा दिमाग खाकर अपना पेट भर रहे हो।’’ झम्मन ने माहौल को समझकर घसीटे को सम्मान देते हुए कहा, ‘‘घसीटे भाई, बात तो बताओ।’’ घसीटे: ‘‘क्या बताएं झम्मन, लखनऊ गए थे धरना-प्रदर्शन करने।’’ झम्मन: ‘‘फिर क्या हुआ?’’ घसीटे: ‘‘तो फिर होना क्या था, खेली गई लट्ठमार होली।’’


झम्मन: तो लखनऊ क्यों बोल रहे हो, लट्ठमार होली तो बरसाना में होती है!’’ घसीटे: तुम्हें तो पूरी कहानी निबंध में समझानी पड़ती है। अरे यार नौकरी के लिए कर रहे थे सरकार के खिलाफ धरना प्रदर्शन। तुम्हें तो पता है मैं अपने पिता से कितना प्रभावित हूं। मैं भी बढ़-चढ़कर अपनी आवाज माइक से बुलंद कर रहा था। फिर क्या था, चलवा दी सरकार ने पानी की बौछार के साथ लठ। बस फर्क इतना था कि होली के पानी में रंग होता है और ये पानी बेरंग होकर भी सरकार का रंग छोड़ रहा था। कोई कार के पीछे था, तो कोई दीवार फांदकर भाग रहा था। शहर को पानी की सप्लाई के लिए सरकार के पास पानी नहीं होता है, लेकिन जब हम गरीब आंदोलन करते हैं तो पता नहीं फालतू पानी बहाने के लिए कहां से आ जाता है। तुम्हें तो पता है कि मुझे पानी से कितना डर लगता है।


 इसी पानी की वजह से ही मेरे पिताजी खर्च हो गए थे। मैंने चिल्लाना शुरू कर दिया, जल ही जीवन है, जल ही जीवन है...जब इससे नहीं माने तो मैंने महात्मा गांधी की लाठी का सहारा लिया और भाषण देने लगा, महात्मा गांधी के पास भी तुम लोगों के जैसी लाठी थी, लेकिन उन्होंने हमेशा अंहिसा का पाठ पढ़ाया और तुम लोग इससे हिंसा फैला रहे हो। प्रशासन के लिए सरकार के आदेश से बड़ा कुछ नहीं होता है। सबने सोचा यही धरने का मुख्या नेता है. जमकर चली लाठी और खुलकर पड़ी बौछार, न पूर्व सरकार और न वर्तमान सरकार, अपने लिए तो सब बेकार, क्योंकि हम हैं  बेरोजगार, जो जिंदगी भर खाते रहेंगे सरकार की मार, अब चलता हूं यार, मां कर रही है घर में इंतजार’’...ये कहता हुआ घसीटे आगे बढ़ गया।

Saturday, 19 July 2014

ख़ामोशी की चादर अक्सर ओढ़ लेती है रात

ख़ामोशी की चादर अक्सर ओढ़ लेती है रात 
कितनी तनहा है ये किससे करेगी बात

मुद्दतों से लगता है जैसे सोई नहीं
अंधेरों के सन्नाटे में कहीं खोई नहीं

मैं तो किसी की याद में जाग रहा हूँ
उजाले से अंधेरे की तरफ भाग रहा हूँ

तू किससे अपना मुंह छिपाती है
जो हर रोज नकाब ओढ़कर चली आती है

क्या तेरा भी कोई महबूब था
जिसे चाहा तूने खूब था

रात  ने कहा मैं मजबूर हूं
खूबसूरत उजालों से दूर हूं

मेरा काम नींद को ख्वाब से मिलाना है
मेरी वजह से परवाना शमा का दीवाना है

तन्हाई का मारा मेरा साथी है
मेरे वजूद से ही दिये में बाती है

यादें सजातीं हैं मेरे आंगन में महफ़िल
खेलते रहते हैं जुगनू  गोद में झिलमिल

जब बेदर्द दिन तुझे 'अरमान' सताता है
मेरे आगोश में आकर ही तू चैन पाता है...

Thursday, 17 July 2014

एक नजम लिखते हैं...

चलो हम तुम मिलकर एक नजम लिखते हैं
शब के कोयले से दीवार-ए-वादों पर कसम लिखते हैं

वक्त की बारिश भी धो न पाये इस इबारत को
कुछ ऐसी ही त्वारीख इस जनम लिखते हैं


फलक से समेट लेते हैं चांद तारों को
हर एक पर नाम-ए-सनम लिखते हैं

ख्वाहिशों की पतंग खूब ढील देके तानो
ऐसे खुले आसमान किस्मत से कम मिलते हैं

अश्कों को डाल आएं गहरे समंदर में
गमों के दरिया भी जाकर वहीं मिलते हैं

वफाओं की पोशाक से होगी हिफाजत हमारी
इश्क की वादी में मौसम भी रुख बदलते हैं

कहीं कलम न हो जाए मोहब्बत से खाली 'अरमान'
यही तो सोचकर जवाब में नफरतें कम लिखते हैं...