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Wednesday 16 July 2014

खाक होकर भी मैं किस कदर जल गया...

खाक होकर भी मैं किस कदर जल गया
मेरा मुंसिफ ही मेरा कातिल निकल गया
बड़े शान से जिसकी वफा पर इतराते थे 'अरमान'
बेरुखी की कालिख मेरे माथे परे मल गया

मेरी तो सुबहो शाम थी सिर्फ तेरी चाह में
शायद वो शिद्दत नहीं थी मेरी आह में
तू एक खूबसूरत आफताब था जो ढल गया
खाक होकर भी मैं किस कदर जल गया

बेचैन हूं, बेताब हूं
यादों की धुंधली एक किताब हूं
पन्नों से गुलाब की तरह निकल गया
खाक होकर भी मैं किस कदर जल गया

मरहम लगाने वाला चला गया
जिंदगी को मौत से मिला गया
आखिरी वक्त भी आंख से तेरा आंसू निकल गया
खाक होकर भी मैं किस कदर जल गया

16 comments:

  1. बहुत खूब अरमान साहब

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  2. बेहतरीन ग़ज़ल
    छा गए आप तो

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  3. मेरी तो सुबहो शाम थी सिर्फ तेरी चाह में
    शायद वो शिद्दत नहीं थी मेरी आह में
    तू एक खूबसूरत आफताब था जो ढल गया
    खाक होकर भी मैं किस कदर जल गया

    बेहतरीन प्रस्‍तुति

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  4. Beautiful poetry Armaan, sharing it :)

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    1. धन्यवाद व्यास जी,,,

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  5. नज्म को पसंद और शेयर करने के लिए शुक्रिया व्यास जी...

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  6. बहुत सुंदर ! हर लफ्ज़ लाजवाब है !

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    1. सादर आभार साधना जी,,,

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  7. Replies
    1. धन्यवाद जोशी जी,,,

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  8. Wash lajawaab Armaaan.... Likhate rahiye..

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    1. सादर धन्यवाद परी जी, ,

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