लाख भीड़ है ज़माने की
पर बंद सबकुछ दर सा है
कोई नज़र नहीं आता अब
ख़ाली-ख़ाली ये शहर सा है
ठहर जाऊं दो घड़ी कहां
नहीं लगता कोई घर सा है
रस्ते जा रहे किस तरफ़ कौन जाने
हर दिल में बसा इक डर सा है
सहमा-सहमा खड़ा मुसाफ़िर यहां
मन में रहबर के कहर सा है
सांसें तो चल रहीं पर मत पूछो
हवाओं में अजब ज़हर सा है
झूठ फैलाते हैं वो बड़े सलीके से
जो बिकता बड़ी ख़बर सा है
रात लंबी सही, ख़त्म होगी 'अरमान'
उम्मीदों में कुछ सहर सा है...
#अरमान
सहर-सुबह
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